विनीत कुमार/ क़ायदे से आज समाचार चैनलों को अपनी तरफ से कुछ नहीं करना था. अपनी नकली आक्रामक भाषा और भोथरी समझ को एक तरफ करके सिर्फ पत्र सूचना कार्यालय( पीआईबी) की ओर से की गयी कवरेज, भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी, कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह की ओर से प्रेस कॉन्फ्रेंस में कही गयी बातों को घर-घर तक पहुंचाना था.
उन्हें बल्कि शुरु में ही अपने दर्शकों से कहना चाहिए था कि हम मीडियाकर्मी-एंकर जो बातें आपको बताएंगे, उससे कई गुना ज़रूरी और कहीं ज़्यादा संजीदगी के साथ इन तीनों ने भारत, भारत की नीति और इसके मिज़ाज के बारे में कहा है. उनमें ख़ुद को जांचने-परखने की सलाहियत होती तो साथ में ये भी जोड़ते कि माफ़ कीजिएगा, हम विक्रम मिसरी और सोफिया कुरैशी जैसी हिन्दी नहीं बोल सकते, व्योमिका सिंह जिस इत्मिनान के साथ अंग्रेजी बोल रही है, हमें नहीं आतीं. आज दिनभर की कवरेज में इन तीनों की बातें, बात रखने के अंदाज़, शब्दों का चयन और इत्मिनान अंदाज़..घर-घर पहुंचाने के आगे चैनलों का और कोई काम नहीं होना चाहिए था. लेकिन
न्यूज चैनलों ने अपनी जड़ता और शोर के आगे यह महसूस करने की रत्तीभर कोशिश नहीं की. उन्होंने इस बात पर ग़ौर ही नहीं किया कि ज़रूरी और असरदार बातें चीखकर नहीं की जाती. इन तीनों ने जिस अंदाज़ में अपनी बात रखी है, यह समझने के लिए काफी है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की भाषा कैसी होनी चाहिए और न्यूज चैनल कैसी भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं और अपने असर से भाषा-वृत्त तैयार कर रहे हैं !
मीडिया के सेमिनारों में बात जब भाषा और चैनलों के रवैये को लेकर उठती है तो व्यावसायिक दबाव पेट पालने की बात को इस अंदाज़ में शामिल किया जाता है कि जैसे उसके आगे किसी भी तरह की सुधार की बात की ही नहीं जा सकती. सरकार और सेना के प्रतिनिधि ने कार्रवाई के बाद जिस भाषा का इस्तेमाल किया, यह जताने के लिए काफी है कि कारोबारी मीडिया की भाषा में न तो दुनिया के आगे अपनी बात रखी जा सकती है और न ही वैसी आक्रमकता की कोई ज़रूरत है.
न्यूज चैनलों के मीडियाकर्मियों के भीतर जरा सा भी अपनी भाषा, अपने पेशे और विरासत में मिले सम्मान के प्रति अनुराग होगा तो वो ये ज़रूर सोचेंगे कि ऐसा क्या है कि इतने घंटे की आपाधापी करते रहने के बावज़ूद कहीं, किसी ने एक पंक्ति में हमारी तारीफ़ में किसी ने नहीं लिखा. प्रतिनिधि की ओर से एक भी ऐसे शब्द का प्रयोग नहीं किया गया जिससे लगे कि ये भी हमें देखते-सुनते हैं. इतनी बड़ी घटना के बीच न्यूज चैनल की कोई साकारात्मक भूमिका रही हो, इस बात पर चौतरफा सन्नाटा क्यों है ?
आज मेरी समझ को और मजबूती मिली है कि न्यूज चैनल पत्रकारिता के निर्धारित मानदंड से फिसलकर इतने नीचे जा चुके हैं कि उपलब्ध अच्छी सामग्री का भी बेहतर इस्तेमाल की स्थिति में नहीं है. वो सबकुछ करते हुए भी पत्रकारिता नहीं कर रहे, शायद इसलिए ख़ुद को साबित करने के लिए रूटीन से चीखना-चिल्लाना पड़ता है. अब वो चाहकर भी अपनी खोयी हुई भाषा और गरिमा हासिल नहीं कर सकते.